AYODHYA-KAND अयोध्या कांड

 रामचरितमानस अयोध्या काण्ड सारांश 

अयोध्या काण्ड तुलसीदास जी कृत रामचरितमानस का एक खण्ड( भाग या सोपान) है.

तुलसीदास जी कहते हैं, "मैं श्री गुरु के चरणों के रज से अपने मन रूपी दीपक को साफ करके श्री राम  के  निर्मल यश  का वर्णन करना चाहता हूं जिससे चारों फल धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त होते हैं ".

 जब से श्री रामचंद्र जी विवाह करके अयोध्या में आए हैं . तब से मानो सभी रिद्धि सिद्धि और ऐश्वर्या का समुद्र उमड़ पड़ा हो.

रामचरितमानस अयोध्या काण्ड 8 चौपाई

एक दिन राजा दशरथ ने दर्पण में अपने सफेद बाल देखे. उन्हें लगा कि अब मुझे श्री राम को युवराज पद देकर अपना जीवन सफल बना लेना चाहिए. उन्होंने अपनी इच्छा गुरु वशिष्ट जी को सुनाई.गुरु जी से आज्ञा मिलते ही उन्होंने मंत्रियों को श्री राम के राज्याभिषेक की तैयारी करने की आदेश दिया . यह खबर सुनकर पूरी अयोध्या में और रनिवास में खुशी की लहर दौड़ गई .

जहां श्री राम के  राज्याभिषेक की खबर सुनकर पूरी अयोध्यापुरी में बधावे बज रहे थे .वहां दूसरी तरफ देवता सरस्वती जी से वंदना करते हैं कि कुछ ऐसा करें जिससे श्री राम राज्य त्याग कर वन चले जाएं. 

  सरस्वती ने मन्थरा नाम कैकेयी की एक दासी को अपयश की पिटारी बनाकर उसकी बुद्धि फेर दी.अवधपुरी में राज्याभिषेक की तैयारियां देखकर वह कैकई के पास गई 

मंथरा कैकेयी से कहने लगी कि , "तुम्हारा पुत्र भरत ननिहाल में हैं".  इस लिए कौशल्या ने मौका पाकर राजा को राम के राज्याभिषेक के लिए मना लिया होगा.वह बाद में तुम्हें दासी बना कर रखेगी .मंथरा ने कैकेयी से कहा कि, "तुम्हारे दो वरदान राजा के पास धरोहर हैं". तुम ऐसा करो कि राजा से भरत के लिए राज्याभिषेक और राम के लिए वनवास मांग लो. जब राजा राम की सौगंध खा ले तब तुम उनसे वह वरदान मांगना ताकि राजा अपने वरदान से पलट ना सके .अब तुम कोप भवन में जाओ.

रामचरितमानस के प्रसिद्ध दोहे चौपाई

कैकेयी का कोप भवन में जाना और राजा दशरथ से दो वर मांगना

 राजा दशरथ को जब रानी कैकेयी के कोप भवन में होने की बात पता चली. तब वह रानी से बार-बार उनके क्रोध का कारण पूछते हैं .जब राजा दशरथ श्री राम की सौगंध खाकर कहते हैं कि अपनी मनचाही बात मांग ले. रानी कैकेयी ने राजा को दो वरदान के बारे में याद करवाया.

राजा दशरथ कहने लगे कि, " तुम दो के बदले चाहे चार वर मांग ले.रघुकुल की रीति सदा चली आई है प्राण भले चले जाएं पर वचन नहीं जाता". कैकेयी कहने कहा कि, "भरत का राज्य अभिषेक कर दें और राम को 14 वर्ष का वनवास दे .  

राजा दशरथ कहने लगे सुबह ही दूत भेज कर भरत को ननिहाल से बुला लूंगा और अच्छा सा मुहूर्त देखकर उसका राज्याभिषेक कर दूंगा.लेकिन तुमने जो दूसरा वर मांगा है कि राम को वनवास .क्या तुम सच में ऐसा चाहती हो! क्योंकि तुम तो स्वयं राम से बहुत प्रेम करती हो? 

कैकेयी कहती है ,"अगर कल सुबह राम वन नहीं गए तो मेरा मरना तय है" . 

 राजा दशरथ हा! राम कहते धरती पर गिर पड़े. अगले दिन सुबह मंत्री सुमंत्र ने राजा की व्याकुलता को देखकर    कैकेयी से इसका कारण पूछा . कैकेयी कहने लगी कि, "तुम जल्दी से राम को बुला लाओ ". सुमंत्र ने  श्रीराम को राजा की आज्ञा सुनाई और अपने साथ ले आए. 

श्री राम ने  कैकेयी से राजा के दुख का कारण पूछा. कैकेयी कहने लगी, "मैंने राजा से दो वरदान मांगे थे". राजा पुत्र स्नेह के कारण धर्म संकट में हैं. तुम चाहो तो राजा का कलेश मिटा सकते हो . फिर कैकेयी ने दोनों वचन श्री राम को सुना दिए.

 जब राजा ने सुना कि श्री राम पधारे हैं तो आंखें खोल कर उन्हें हृदय से लगा लिया. राजा महादेव का स्मरण करते हुए उन्हें कहने लगे कि,"आप श्रीराम को ऐसी बुद्धि दे कि वह मेरा वचन त्याग कर घर पर ही रह जाए ".

पर श्रीराम ने राजा से आज्ञा मांगी और कहा कि मैं माता जी से विदा लेकर आता हूं. 

श्रीराम ने जाकर अपनी माता कौशल्या के चरणों में शीश झुकाया और आशीर्वाद लिया. श्रीराम कहने लगे मां मुझे पिताजी ने वन का राज्य सौंपा है. मुझे आज्ञा दे कि मेरी वन यात्रा आनंदमय हो .14 वर्ष वनवास में रहकर फिर लौटकर आपके दर्शन करूंगा.

श्री राम के कोमल वचन मां के हृदय में शूल से लगे . वह श्री राम से पूछने लगी कि, "तू तो पिता को प्राणों से भी प्रिय है" .तुम्हें वन जाने का आदेश क्यों दिया ?

श्री राम को चुप देखकर मंत्री के पुत्र ने सारा प्रसंग कौशल्या को सुनाया .उनकी हालत सांप के मुंह में छछूंदर सी हो गई. हठ करके अगर राम को वन जाने से रोकती हैं तो धर्म की हानि होती है .अगर वह जाने को कहती हैं तो भी बहुत हानि होती हैं.

वह धीरज धर कर कहती हैं कि, "तू पिता की आज्ञा का पालन कर" . माँ कौशल्या ने श्री राम को अपने हृदय से लगा लिया. 

सीता जी और लक्ष्मण जी का वन जाने की आज्ञा मांगना

सीता जी को जब श्री राम के वन गमन की सूचना मिली तो उन्होंने भी वन में साथ चलने की आज्ञा मांगी। श्री राम ने उन्हें समझाया कि वन में भयानक सर्दी, गर्मी और वर्षा होगी। नंगे पांव चलने पर पांवों में कांटे चुभेगे। लेकिन जब किसी भी प्रकार सीता जी नहीं मानी तो श्री राम ने उन्हें वन में साथ चलने की आज्ञा दे दी। उधर जब लक्ष्मण जी ने श्री राम के वनवास का पता चला तो वह भी श्री राम के साथ चलने के लिए कहने लगे। श्री राम के बहु विधि समझाने पर भी जब वह नहीं माने तो श्री राम ने उन्हें मां से आज्ञा मांग कर आने के लिए कहा।

 सुमित्रा से विदा मांगने गए.  मां सुमित्रा कहती है कि ,"पुत्र जानकी तुम्हारी माता और श्री राम तुम्हारे पिता के समान हैं।"तुम वन में मन, वचन, कर्म से श्री राम सीता जी की सेवा करना।राम, लक्ष्मण जी और सीता जी का दशरथ जी से विदा माँगने गए।

वह सीता जी और दोनों पुत्रों को देखकर व्याकुल हो गए. उन्हें बार-बार गले से लगाते हैं. कैकेयी ने मुनियों के वस्त्र ,आभूषण, बर्तन लाकर श्री राम के आगे रख दिए. श्री राम तुरंत मुनि वेश बनाकर माता को प्रणाम करके चल दिए. राजा श्री राम को मुनी वेश में देखकर अचेत हो गए . 

श्री राम का वन को जाना

जब राजा को चेतना आई तो उन्होंने सुमंत्र को कहा कि तुम रथ लेकर राम के साथ जाओ. वन दिखाकर चार दिन बाद लौटा लाना. सुमंत्र जी ने रामचंद्र सीता जी और लक्ष्मण जी को रथ पर चढ़ाया और अयोध्या को सीस निवा कर चल पड़े. 

श्री राम के जाने की बात सुनकर अयोध्या के लोग व्याकुल हो गए और वह श्री राम के रथ के साथ साथ चल पड़े . श्री राम ने उन्हें बहुत समझाया लेकिन वह नहीं लौटे. जब शोक और थकावट के कारण रात्रि को वह लोग सो गए और जब दो पहर रात बीत गई. 

 श्री रामचंद्र ने सुमंत्र से कहा कि रथ को इस प्रकार हांकिए की उसके पहियों  से उसकी दिशा का पता ना चले .सुबह जब सब लोग उठे तो शोर मच गया कि श्रीराम हमें छोड़ कर चले गए हैं .

सीता जी और मंत्री सहित दोनों भाई श्रृंगवेरपुर पहुंचे और गंगा जी को श्री राम ने प्रणाम किया. जब निषादराज गुह  ने समाचार सुना तो वह बंधुओं के साथ श्री राम से मिलने पहुंचे .रात्रि वहां पेड़ के नीचे विश्राम किया और  सुबह बड़ का दूध मंगवा कर श्री राम और लक्ष्मण जी ने जटाएं बनवाई . मंत्री जी को बहुत प्रकार समझा-बुझाकर विदा किया .उसके पश्चात सभी गंगा किनारे आ गए और केवट ने श्री राम, लक्ष्मण और सीता जी को गंगा पार करवाई।

श्री राम फिर भारद्वाज मुनि के आश्रम पहुंचे। उनके पश्चात उन्होंने यमुना जी में स्नान किया और महर्षि बाल्मिकी जी के आश्रम में पहुंचे। उनसे  आज्ञा लेकर श्री राम ने चित्रकूट की ओर प्रस्थान किया।

श्री राम का चित्रकूट में निवास

 श्री राम ने लक्ष्मण जी से कहा कि कुटी  बनाने का प्रबंध करो .जब देवताओं ने देखा कि श्रीराम का मन जहां रम गया है वह देवता विश्वामित्र जी के साथ  चित्रकूट की ओर चल पड़े. 

देवताओं ने कोल भीलों का वेश धारण करके दो सुंदर कुटिया बनाई . श्री राम, मां जानकी और लक्ष्मण जी इसमें शोभा मान हो रहे हैं. 

 मंत्री सुमंत्र का अयोध्या वापस लौटना

तुलसीदास जी कहते हैं अब सुमंत्र का अयोध्या  गमन सुनो .सुमंत्र श्री राम के बिना ऐसा महसूस कर रहे हैं मानो कंजूस का धन का खजाना खो गया हो. सुमंत्र  सोच रहे हैं अयोध्या वासी जब श्री राम चंद्र के बिना रथ को देखेंगे ,तो  मैं उनको क्या उत्तर दूंगा? जब वह महल में पहुंचे तो सारा रनिवास व्याकुल हो गया.

सुमंत्र जी कौशल्या के महल में पहुंचे तो राजा दशरथ व्याकुल होकर पूछते हैं, "राम लक्ष्मण और सीता कहां है"? सुमंत्र ने उनको श्री राम की वन गमन की पूरी बात बताई.

श्रीराम का संदेशा दिया कि पिता जी को मेरा प्रणाम कहना और कहना कि मेरी चिंता ना करें. आपकी कृपा और पुण्य से मेरा मार्ग कुशल मंगल हो

राम -राम कह कर श्री राम की बिरहा में राजा दशरथ स्वर्ग सिधार गए .रानी शोक के मारे रो रही हैं . ऋषि विश्वामित्र ने नाव में तेल भरवा कर राजा के शरीर को उस में रखवा दिया.

भरत और शत्रुघ्न का ननिहाल से अयोध्या लौटना

ऋषि वशिष्ठ ने भरत शत्रुघ्न को बुलाने दूत भेजे. दूतों से कहा कि तुम जल्दी से भरत और शत्रुघ्न के पास जाओ और राजा की मृत्यु का समाचार किसी से मत कहना. दोनों भाइयों से बस इतना ही कहना कि गुरुजी ने बुलावा भेजा है.

दूतों से समाचार सुनते ही दोनों भाई अयोध्यापुरी की ओर चल पड़े . 

पुत्र के आने की बात सुनकर  कैकेयी आरती का थाल सजाकर आनंद से द्वार पर गई. भरत ने जब सबकी कुशल मंगल पूछी तो रानी कैकेयी कहने लगी कि मैंने   मंथरा की मदद से सारी बात बना ली थी लेकिन जरा सा काम बिगड़ गया है . राजा देव लोग पधार गए हैं.  

भरत जी पिता के मरण का कारण पूछने लगे. कैकेयी ने सारी करनी शुरू से अंत तक सुना दी. श्री राम का वन गमन सुनते ही भरत जी को पिता का मरण भूल गया. 

भरत जी कहने लगे भगवान ने मुझे दशरथ जैसे पिताजी दिए और राम लक्ष्मण जैसे भाई दिए.लेकिन मुझे जन्म देने वाली माता तू क्यों हुई! उसी समय मंथरा सजधज आ तो लक्ष्मण जी के छोटे भाई ने जोर से उसके कूबड़ पर लात मार जमा दी. भरत जी ने उन्हें शत्रुघ्न से छुड़ाया.

भरत जी का पिता का अंतिम संस्कार करना

तब  वामदेव जी और विशिष्ट जी आए और भरत जी से राजा के संस्कार की सभी विधि करने को कहा. सरजू नदी के तट पर सुंदर चिता बनाई गई और विधि पूर्वक भरत जी ने तिलांजलि दी और ब्राह्मणों को दान दिया. सभी रीतियाँ होने के बाद विशिष्ट जी ने भरत जी से कहा कि राजा ने राजपाट आप को दिया . तुम्हें पिता का वचन सत्य करना चाहिए. भरत जी कहने लगे पिताजी स्वर्ग में हैं और भाई वन में ऐसे में मैं राज्य कैसे कर सकता हूं.

भरत जी का चित्रकुट की ओर प्रस्थान

आप मुझे आज्ञा दे कि मैं श्री राम के पास जाऊं.

आप लोग मुझे राज्य करने के लिए कह रहे हैं लेकिन श्री राम के दर्शन के बिना मेरे मन की जलन कम नहीं होगी .  श्रीराम ही मेरे मन की बात जान सकते हैं . मैं प्रातः काल ही प्रभु श्री राम के पास चल दूंगा. भरत जी के वचन सुनकर मानो शौक समुंदर में डूबे हुए लोगों को किनारा मिल गया . भरत जी ने श्री राम के पास जाने की सारी व्यवस्था कर दी और तिलक का सम्मान भी साथ ले जाने को कहा ताकि गुरु वशिष्ठ श्री राम का राजतिलक कर सके .

सब लोग रथ पर चढ़कर चित्रकूट की ओर चल पड़े रात सही नदी के किनारे निवास करते.

भरत जी और निषादराज का मिलन

जब श्रृंगवेरपुर के समीप पहुंचे .जब निषाद राज को समाचार मिला कि भारत अपनी सेना के साथ आए हैं तो उन्हें लगा कि शायद श्री राम और लक्ष्मण को मार कर भरत निशकंटक राज करना चाहते हैं . उन्होंने सभी को आज्ञा दी कि सब घाटों को रोक लो नावों को कब्जे में कर लो. वह कहने लगे कि भरत से मैं खुद लडूंगा. जीते जी उन्हें गंगा जी के पार नहीं करने दूंगा.

फिर किसी बुजुर्ग ने सलाह दी कि पहले भरत जी से मिल लिया जाए . निषाद राज जी जब भरत जी के पास पहुंचे . भरत जी को  जब पता चल निषादराज जी श्री राम के मित्र हैं तो उन्होंने यह सुनते ही उन्हें स्नेह से ऐसे गले लगा लिया . मानो लक्ष्मण जी के गले मिल रहे हो .

भरत जी निषादराज से कहते हैं मुझे वह स्थान दिखाओ जहां श्री राम में विश्राम किया था . भरत जी ने फिर अशोक वृक्ष के नीचे उस स्थान को प्रणाम किया .

अगले दिन सुबह सब लोग गंगा पार उतर गए भरत जी ने त्रिवेणी में स्नान कर कहा कि मुझे वरदान दे कि हर जन्म श्री राम के चरणों में मेरा स्नेह हो .भरत जी के भजन सुनकर त्रिवेणी से कोमल वाणी हुए कि तुम श्री राम को बहुत प्रिय हो . यह सुनकर भरत जी का शरीर पुलकित हो गया . 

भरत जी भारद्वाज मुनि के आश्रम पहुंचे तो भरत की सोचने लगे कि मैं मुनि को क्या उत्तर दूंगा? लेकिन भरत  जी को भारद्वाज ऋषि ने कहा कि पुत्र तुम गिलानी मत करो . 

अगले दिन भरत जी चित्रकूट की ओर चल पड़े.  भरत जी जमुना के तट पर पहुंचे. वहां स्नान कर अगले दिन सुबह चित्रकूट की ओर चल पड़े. रास्ते में भील, कोलों से श्री राम लक्ष्मण और सीता जी के बारे में पूछते हैं. निषादराज जी भरत जी को उस पर्वत के दर्शन कराते हैं जहां पर श्री राम निवास कर रहे हैं.

सब लोग जानकी जीवन श्री राम की जय हो कहकर  रात को वही पर निवास करते हैं .

श्री राम को भरत जी का सेना सहित आने का समाचार मिलना

उधर सीता जी ने सवप्न में देखा कि भरत जी समाज सहित यहां आए हैं. सासुऔं को दूसरे के रूप में देखा

 श्री रामचंद्र भी सोच में पड़ गए और लक्ष्मण जी से कहने लगे कि यह स्वपन अच्छा नहीं लगता .कोई अशुभ समाचार सुनाई देगा .उन्होंने महादेव जी का स्मरण किया.उसी समय भीलों ने आकर भगवान श्रीराम को भरत जी के चतुरंगी सेना के साथ आने का समाचार दिया.

लक्ष्मण जी कहने लगे कि भरतके मन में कोई को दुष्टता    चल रही होगी तभी तो  सेना सहित आया है  .आप मुझे आज्ञा दे तो मैं इसे छोटे भाई सहित रण में पछाड़ दू. तभी अकाशवाणी हुई थी कोई भी काम उचित अनुचित के ज्ञान के यह बिना नहीं करना चाहिए  नहीं तो पीछे पछताना पड़ सकता है.

श्री राम लक्ष्मण जी से कहने लगे कि, "मैं पिता की सौगंध खाकर कहता हूं ,कि भरत के समान पवित्र और उत्तम भाई कोई नहीं है. भरत जी ने समाज सहित मंदाकिनी नदी में स्नान किया.

श्रीराम और भरत जी मिलन

भरत जी निषादराज जी के साथ वहां चल पड़े जहां श्री राम जी और सीता जी थे. भरत जी श्री राम के आश्रम जा पहुंचे . आश्रम में प्रवेश करते ही भरत जी का दुख मानो दूर हो गया और हे नाथ रक्षा करें ऐसा कह कर पृथ्वी पर दंड प्रणाम किया.लक्ष्मण जी ने जब श्री राम को सप्रेम भरत जी के प्रणाम करने के बारे में बताया. श्री राम प्रेम के अधीन हो गए कहीं वस्त्र गिरा, कहीं धनुष ,कहीं तरकस और तीर अर्थात श्री राम को अपने शरीर की सुध नहीं रही. 

श्री राम ने भरत जी को उठाकर अपने ह्रदय से लगा लिया और श्री राम और भरत के मिलन को देखकर सब लोग पुलकित हो रहे हैं .

श्री राम और भरत का मिलन देखकर देवताओं की धुकधुकी धड़कने लगी. देव गुरु बृहस्पति ने उन्हें समझाया. श्री राम प्रेम से शत्रुघ्न, केवट और निषादराज से मिले .लक्ष्मण जी ने भरत और शत्रुघ्न दोनों भाइयों को हृदय से लगा लिया और सीता माता को प्रणाम कर दोनों भाइयों ने आशीर्वाद लिया.

जब केवट जी ने बताया कि प्रभु मुनि नाथ विशिष्ट, माताएं और अयोध्या वासी आप के वियोग में व्याकुल हैं. श्री राम लक्ष्मण जी बड़े वेग से वही चल पड़े . दोनों ने गुरु विशिष्ट और माता से बड़े प्रेम से मिले.

श्री राम  जब माता कैकेयी मिले तो उन्हें सांत्वना दी कि जो कुछ हुआ उसमें किसी का कोई दोष नहीं है. सब ईश्वर के अधिन है .फिर गुरु पत्नी अरुंधति, माता कौशल्या और सुमित्रा जी को प्रणाम कर आशीर्वाद लिया फिर सीता जी ने सब को जब प्रणाम कर आशीर्वाद लिया . सब लोग प्रेम के वश हो कर व्याकुल हो गए. 

 वशिष्ठ ने श्री राम, लक्ष्मण और सीता जी को दशरथ जी के स्वर्ग गमन की बात कही . जिसे सुनकर सब लोग विलाप करने लगे मानो आज ही राजा स्वर्ग गए हैं. फिर गुरु जी के कहने पर श्रीराम ने निर्जल व्रत किया और अगले दिन प्रातःकाल पिता कि वेदों की रीति के अनुसार क्रिया की. 

श्री राम वशिष्ठ जी और भरत जी के संवाद

गुरु विशिष्ट जी श्रीराम कहते हैं कि आप के बिना अयोध्या सूनी हैं . आप अयोध्या लौट आएं . भरत जी श्री राम से कहते हैं कि आपके लौटने में सब का स्वार्थ है. आप मेरी विनती सुनकर जैसा उचित हो वैसा ही करें. राजतिलक की सब सामग्री तैयार हैं आपका मन हो तो उसका प्रयोग करें . नहीं तो छोटे भाई शत्रुघ्न समेत मुझे वन भेज दें . 

अयोध्या जाने को तैयार ना हो तो लक्ष्मण और शत्रुघ्न को लौटा दे मैं आपके साथ चलता हूं या फिर हम तीनों बन जाएं और आप सीता जी के साथ अयोध्या वापिस लोट आए. 

प्रभु  जिसे जो आज्ञा देंगे वह  उसका पालन करेगा प्रभु श्री राम उस समय चुप रहे.

जनक जी का चित्रकूट में आगमन

 उसी समय जनक जी के आगमन की सूचना मिली. श्री रामचंद्र जी ने भाइयों सहित जनक थी और जनकपुरी वासियों को प्रणाम किया. 

जानकी जी को तपस्वी के भेष में देखकर सब लोग व्याकुल हुए और जनक जी ने अपने प्राणों से प्यारी पुत्री को हृदय से लगा लिया. माता-पिता से मिलकर जानकी जी विकल हो गई.  सब लोग श्री राम और सीता जी का साथ पाकर बहुत प्रसन्न हैं.

एक दिन रघुनाथ जी गुरु वशिष्ट के पास गए और प्रणाम कर कहने लगे कि अयोध्या वासियों और मिथिला वासियों को वन में  कलेश सहते हुए बहुत दिन हो गए. इसलिए उचित होगा कि आप वह करें जो सबके लिए उचित है. 

गुरु वशिष्ठ और जनक जी भरत जी के पास गए और कहने लगे कि रामजी सत्यव्रत और धर्म का पालन करने वाले हैं. अब तुम ही आज्ञा दो क्या किया जाए भरत जी कहने लगे कि आप मुझे पिता समान पूज्य है.

देवताओं का भय और सरस्वती जी का समझाना

सब लोग श्री राम के पास गए. श्री राम को स्नेह के वश देख कर देवराज इंद्र ने सरस्वती से  भरत जी कि बुद्धि फिर देने को कहा. मां सरस्वती देवताओं को स्वार्थ के वश जानकर कहती हैं कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश की माया इतनी प्रबल है लेकिन वह भी भरत की बुद्धि नहीं फेर सकती और तुम मुझे कह रहे हो कि मैं भरत जी की बुद्धि को भुलावे में डाल दूं. 

भरत जी के है हृदय में  श्री राम निवास करते हैं जहां सूर्य का प्रकाश हो  वहाां अंधेेरा टिक नहीं सकता है.ऐसा कहकर सरस्वती जी ब्रह्मा लोक चली गई .देवराज इंद्र सोचने लगे कि अब काम बनाना और बिगाड़ना भरत जी के हाथ में है .

श्री राम और भरत जी संवाद

श्री राम भरत जी को कहने लगे कि तुम सबको कर्तव्य और मेरे धर्म हित  पता है. हे तात तुम वही करो और मुझसे भी वही कराओ.सूर्यकुल  के रक्षक बनो .

श्री राम की आज्ञा पाकर भरत जी  स्नेहपूर्ण वाणी  कहते हैं कि प्रभु अब जैसी आप आज्ञा दोगे मैं वही करूंगा .  मैं  आपके और पिताजी के वचनों का उल्लंघन कर समाज सहित यहां आया हूं . मैं आपके चरणों का दर्शन कर जान गया कि इतनी बड़ी चूक के बाद भी आपका मुझ पर बहुत अनुराग है.मुझे आज्ञा दे लेकिन अब मुझे कोई (अवलंबन) सहारा दे जिसकी सेवा कर में 14 वर्ष की अवधि पार  कर सकूं.  इतना कहकर  भरत जी ने व्याकुल होकर श्री राम के चरणों में पकड़ लिया .

भरत जी के दीन वचन सुनकर बोले कि मेरा और तुम्हारा पुरुषार्थ इसी में है कि हम दोनों भाई पिता की आज्ञा का पालन करें .तुम गुरु वशिष्ट, माता और मंत्रियों की इच्छा मानकर राज्य और प्रजा की रक्षा करना. 

तुलसीदास जी कहते हैं श्री राम कहते हैं कि, "मुखिया मुख के समान होना चाहिए, जो खाने पीने को तो एक हैं (अकेला) लेकिन विवेक से सभी अंगो का पालन करता है . श्री राम ने बहुत प्रकार से भरत जी को समझाया लेकिन बिना आधार (अवलम्बन) उनके मन को संतोष ना हुआ . श्रीराम ने अपनी खड़ाऊं  भरत जी को दे दी . भरत जी के लिए मानो दोनों खड़ाऊं प्रजा की रक्षा के लिए पहरेदार हो.

अब भरत जी ने श्रीराम से विदा मांगी. यह दृश्य देखकर देवता से खुश हो रहे हैं मानो जो सेना लूटनेआई थी वही रक्षक बन गई हो. भरत ,शत्रुघ्न श्री राम को प्रणाम कर संपूर्ण समाज सहित अयोध्यापुरी को चले.

श्री रामचंद्र, लक्ष्मण जी और सीता जी सहित सब को विदा कर अपनी पर्णकुटी में आए. उधर भरत जी सहित सारा समाज श्रीराम की विरहा में बेहाल हैं . चौथे दिन सब लोग अयोध्या जी पहुंचे. 

भरत जी का  पादुकाओं की स्थापना करना

भरत जी ने शुभ मुहूर्त पर  प्रभु श्रीराम के चरण पादुकाओं को सिंहासन पर विराजित कर दिया. वह स्वयं सिर पर जटाजूट और शरीर में मुनियों के वस्त्र धारण कर नंदीग्राम में पर्णकुटी बनाकर निवास करने लगे .

भरत जी प्रतिदिन प्रभु श्री राम की पादुकाओं का पूजन करते और पादुकाओं से आज्ञा मांग कर राज्य करते . 

रामचरितमानस की प्रसिद्ध चौपाई

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