SHIV RUDRASHTAKAM RAMCHRITMANAS शिव रूद्राष्टकम

 SHIV RUDRASHTAKAM KI          RACHNA KIS NE KI



शिव रूद्राष्टकम की रचना किस ने की

 शिव रूद्राष्टकम् का वर्णन  तुलसीदास जी द्वारा रचित रामचरितमानस के उत्तर कांड में आता है. उत्तर कांड में काकभुशुण्डि जी गरूड़ जी को अपने पूर्व जन्म की कथा सुनाते हैं जिसके अनुसार भगवान शिव उन्हें गुरु का अपमान करने के कारण शाप देते हैं और उनके गुरु ने तब उन्हें शाप से शीघ्र मुक्ति दिलाने के लिए भगवान शिव की  हाथ जोड़ कर विनती की थी. 

काकभुशुण्डि जी गरूड़ जी कहने लगे कि पूर्व जन्म मेरा जन्म अयोध्या पूरी में हुआ.मैं शिव जी का सेवक और दूसरे देवताओं की निंदा करने वाला अभिमानी था. 

अयोध्या में एक बार अकाल पड़ा और मैं विपत्ति का मारा उज्जैन चला गया और वहाँ शंकर जी की अराधना करने लगा. एक ब्राह्मण वेद विधि से शिवजी की पूजा करते लेकिन हरि निंदा करने वाले नहीं थे.

वह मुझे पुत्र की भांति मानकर पढ़ते थे. उन्होंने ने मुझे शिव मंत्र दिया. मैं शिव मंदिर में जाकर मंत्र जपता. मैं हरि भक्तों से द्रोह करता था. 

 एक बार गुरु जी ने मुझे  शिक्षा दी कि ब्रह्मा जी और शिव जी भी श्री हरि के चरणों के प्रेमी है. तू उनसे द्रोह कर सुख चाहता है? गुरु जी ने शिवजी को श्री हरि का सेवक कहा तो मेरा हृदय जल उठा. मैं गुरु जी से द्रोह करता. 

एक बार मैं शिव जी के मंदिर में शिवनाम जप रहा था. उसी समय गुरु जी वहाँ आए मैंने अभिमान वश गुरु जी को प्रणाम नहीं किया. गुरु जी दयालु थे उन्हें क्रोध नहीं आया. लेकिन गुरु का अपमान महादेव सह ना सके. 

मंदिर में आकाशवाणी हुई कि मूर्ख तेरे गुरु  को क्रोध नहीं है, लेकिन तुम्हें शाप देता हूँ. तू गुरु के सामने अजगर की तरह बैठा रहा. अत : तू सर्प हो जा और पेड़ की खोखले में जाकर रह. 

शिव जी की वाणी सुनकर गुरु ने हाथ जोड़कर कर विनती करने लगे . जिसे सुनकर भगवान शिव प्रसन्न हुए और आकाशवाणी हुई कि वर मांगो.हे दीनों पर दया करने वाले शंकर कृपा करें कि थोड़े ही समय में मेरा शिष्य शाप  मुक्त हो जाए.

आकाशवाणी हुई कि इसने भयंकर पाप किया है लेकिन तुम्हारी विनती से प्रसन्न हूं इस लिए  मैं इस पर कृपा करूँगा.

मेरा शाप व्यर्थ नहीं जाएगा यह हजार जन्म अवश्य लेगा. लेकिन इसे दुख नहीं व्यापेगा और किसी भी जन्म में ज्ञान नहीं मिटेगा.

शिवजी ने कहा कि मेरा आशीर्वाद है कि तुम्हारी सर्वत्र अबाध गति होगी. शिवजी की वाणी सुनकर गुरु प्रसन्न हुए और मुझे समझा कर चले गये. काल की प्रेरणा से में विध्यालय में जाकर सर्प हुआ और कुछ काल बाद मैंने शरीर त्याग दिया. 

मैं जो भी शरीर धारण करता उसमें मेरा ज्ञान नहीं गया. मैं जो भी शरीर धारण करता उसमें श्री राम का भजन करता रहा.

            शिव रूद्राष्टकम

         ।।छंद।। 

नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं

निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं।चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं ।। 


निराकारमोंकारमूलं तुरीयं। गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं।। 

करालं महाकाल कालं कृपालं। गुणागार संसारपारं नतोऽहं।। 


तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं ।मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरं।। 

स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा। लसद्भालबालेन्दुक कंठे भुजंगा ।। 


चलत्कुंडलं भ्रू सुनेत्रं विशालं। प्रसन्नाननं नीलकंठं दयालं।। 

मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं। प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि।। 


प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं।अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं।। 

त्रय: शूल निर्मूलनं शूलपाणिं। भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं।।

 

कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी।सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी।। 

चिदानंद संदोह मोहापहारी। प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी।।

 

न यावद् उमानाथ पादारविन्दं। भजंतीह लोके परे वा नराणां।।

न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं।प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं।। 


न जानामि योगं जपं नैव पूजां। नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं।। 

जरा जन्म दु:खौघ तातप्यमानं। प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो।। 

                     श्लोक

रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये। 

ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भु: प्रसीदति ।। 

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