UDDHAV GEETA उद्धव गीता

 UDDHAV GITA -  SHRI KRISHNA AUR UDDHAV SANVAD 

उद्धव गीता श्री कृष्ण और उद्धव संवाद

श्री कृष्ण के सखा रहे उद्धव ने कभी भी श्रीकृष्ण से कोई वरदान नहीं मांगा . श्री कृष्ण के गोलोक जाने का समय आया तो श्री कृष्ण उद्धव से कहने लगे मेरे अवतार काल में बहुत से लोगों ने मुझ से वरदान प्राप्त किया. लेकिन तुमने कभी भी कोई वरदान नहीं मांगा.

मैं चाहता हूं कि तुम कुछ मांगों. उद्धव ने उसके बाद भी स्वयं के लिए कुछ नहीं मांगा . वह कहने लगे कि प्रभु मेरे मन में महाभारत युद्ध  के घटनाक्रम से संबंधित कुछ शंकाएं हैं उनका समाधान चाहता हूं.

श्री कृष्ण कहने लगे कि अर्जुन को कुरूक्षेत्र के युद्ध में जो ज्ञान दिया वह भगवद्गीता के नाम से जाना जाएगा लेकिन तुम को जो ज्ञान दूंगा वह उद्धव गीता के नाम से विख्यात होगा.

उद्वव जी ने भगवान श्री कृष्ण से पूछा कि सच्चा मित्र कौन है? सच्चे मित्र का धर्म क्या है? 

श्री कृष्ण कहने लगे कि सच्चा मित्र वही है जो बिना मांगे ही विपत्ति में अपने मित्र कि हर संभव मदद करें.

उद्वव ने श्री कृष्ण को टोकते हुए कहा कि माधव अगर मित्र को बिना मांगे मित्र की सहायता करनी चाहिए तो फिर आपने मित्रता की जो परिभाषा बताई वो क्यों नहीं निभाई ?

पांडव तो आप पर अटूट विश्वास करते थे. आपको अपना मित्र समझते थे. आप तो त्रिकालदर्शी थे तो आपने युधिष्ठिर के भाग्य को उसके पक्ष में क्यों नहीं पलटा. आप चाहते तो युधिष्ठिर द्युतक्रीडा में जीत सकता था.

 आपने उन्हें जुआ खेलने से क्यों नहीं रोका? चलो ठीक है नहीं रोका लेकिन आप चाहते तो पांडवों को अपनी दिव्य शक्ति से जुएं में जितावा सकते थे . 

युधिष्ठिर ने जब जुएं में धन, राज्य के बाद जब स्वयं को जुए में दाव पर लगाया तो आपने क्यों नहीं रोका ? 

यहां तक कि युधिष्ठिर ने एक - एक करके अपने भाइयों को भी दांव पर लगा दिया फिर भी आपने उनको क्यों नहीं रोका ?

जब दुर्योधन ने पांडवों को द्रौपदी को दांव पर लगाने हेतु उकसाया और जीतने पर हारा हुआ सब कुछ वापस मिल जाने का लालच दिया तब तो आप उनको रोक सकते थे .

द्रौपदी को भी हार जाने पर बाद और दुशासन के उसे भरी सभा में घसीट कर लाने से पहले तो आप हस्तक्षेप कर सकते थे.

 लेकिन जब द्रौपदी जब लगभग अपना लाज खो चुकी थी तब आपने हस्तक्षेप किया . तब आपने द्रोपदी के वस्त्र का चीर बढ़ाया और उसकी लाज बचाई .

जब आपने संकट के समय पांडवों की सहायता की ही नहीं तो आप उनके सच्चे मित्र कैसे हो सकते हैं? क्या यही मित्र धर्म है?

प्रश्न पूछते पूछते उद्धव के नैत्रों से आंसू बहने लगे .उसका गला रुंध गया. 

श्री कृष्ण कहने लगे कि उद्धव सृष्टि के नियम के अनुसार हमेशा विवेकवान जीतता है .उस समय दुर्योधन ने विवेक से कार्य लिया लेकिन धर्मराज ने अपने विवेक से काम नहीं लिया और उसकी पराजय हुई.

दुर्योधन के पास जुआ खेलने के लिए धन था लेकिन उसे पासे खेलना नहीं आता था इसलिए उसने विवेक से काम लेते हुए द्यूतक्रीड़ा अपनी ओर से अपने मामा शकुनि से खिलवाई .

युधिष्ठिर चाहता तो वह अपनी ओर से मुझे खेलने के लिए बुला सकता था कि मेरी ओर से कृष्ण खेलेगा . स्वयं विचार करो अगर शकुनी और मैं खेलते तो द्यूतक्रीड़ा में जीत किसकी होती पासे किसके पक्ष में  आते . 

 कृष्ण कहने लगे कि उन्होंने विवेक से काम नहीं लिया और एक के बाद एक गलती करते रहे . तुम मुझसे कह रहे हैं कि मैंने हस्तक्षेप क्यों नहीं किया ? 

पांडवों ने अपनी विवेक हीनता में मुझ अपनी प्रार्थना से बांध लिया कि जब तक मुझे बुलाया ना जाए मैं सभा में ना आऊं. उन्हें लगता था कि वह मुझसे छिपकर जुआ खेल सकते हैं. इस प्रकार उन्होंने मुझे अपनी प्रार्थना से बांध लिया था . मैं सभा के बाहर इंतजार कर रहा था कि कब कोई मुझे बुलाएं.

पांडव जुए में एक एक कर हारते रहे लेकिन पांचों भाइयों में से किसी ने भी मुझे नहीं बुलाया . वह केवल अपने भाग्य और दुर्योधन को कोसते रहे .

जब दुशासन आपने भाई  दुर्योधन के आदेश पर द्रौपदी को बालों से पकड़ कर सभा- कक्ष में लाया तो वह भी अपने सामर्थ्य के अनुसार जूझती रही और अपनी मदद के लिए हर किसी की ओर देखती रही .लेकिन जब दुशासन के वस्त्र खींचने शुरू किए तो उसने सब सहारे छोड़ कर केवल मुझे पुकारना शुरू किया और मैं बिना विलंब उसी से समय आ गया.अब तुम ही बताओ इसमें मैं कहां गलत हूं ?

उद्धव कहने लगे कि मैं आपके स्पष्टीकरण से अभी भी संतुष्ट नहीं हूं . क्या आप संकट के समय भक्तों की मदद के लिए स्वयं नहीं आएंगे ? जब आपको बुलाया जाएगा तो क्या केवल आप तब ही आओगे ? क्या अपने भक्त की रक्षा के लिए आपको स्वयं: नहीं आना चाहिए.

श्री कृष्ण कहने लगे कि उद्वव हर मनुष्य का जीवन उसके द्वारा किए गए कर्मों के प्रतिफल के आधार पर होता है . मैं उसमें हस्तक्षेप नहीं करता .मैं केवल एक साक्षी हूं जो सदैव तुम्हारे साथ क्या हो रहा है देखता हूं. यही ईश्वर धर्म है.

उद्वव उलाहना देते हुए कहने लगे कि मनुष्य पाप कर्म करता रहे और आप हमारे पाप कर्मों को देखते रहो और मनुष्य पाप कर्म का फल भोगता रहे .

श्री कृष्ण कहने लगे कि तुम धर्म ध्यान से समझो और अनुभव करो कि ईश्वर हर क्षण साक्षी के रूप में तुम्हारे साथ है तो तुम पाप नहीं करेगे . कोई भी बुरा कर्म करते समय तुम्हारे मन में विचार आएगा कि ईश्वर तुम्हें देख रहा है.

लेकिन जब तुम समझ लेते हो कि ईश्वर से छिपकर कुछ कर सकते हो तुमको कोई भी नहीं देख रहा तब ही तुम संकट में फंस जाते हो.

धर्मराज को लगा कि वह मुझसे छिपकर जुआ खेल सकता है लेकिन अगर इस बात का ध्यान रखता कि मैं हर एक प्राणी में विद्यमान हूं तो वह जुआ खेलते ही नहीं और यदि खेलते तो खेल का परिणाम अलग होता .

प्रभु का उत्तर सुनकर उद्वव अभिभूत बोले कि प्रभु आपने बहुत गूढ़ ज्ञान दिया है. संकट के समय प्रार्थना , पूजा पाठ से परमात्मा को अपनी सहायता के लिए बुलाना यह हमारी श्रद्धा और भावना और विश्वास है. जब हमें लगता है कि ईश्वर की इच्छा के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता, हमेंं साक्षी के रूप में  हर ओर ईश्वर की उपस्थिति अनुभव होती है. 

 लेकिन गड़बड़ तब होती है जब हम भूल जाते हैं कि ईश्वर की दृष्टि पर है. 

जय श्री कृष्णा।

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