RAJA AMBARISH KI KATHA

भगवान विष्णु के भक्त राजा अम्बरीष की कथा 


राजा अम्बरीष राजा नाभाग के पुत्र थे। वह सात द्वीपों के राजा थे। वह बहुत ही ब्रह्मज्ञानी और विष्णु भक्त थे। वह भगवान विष्णु की कथाएं सुनते और मंदिरों में दर्शन करने जाते। विष्णु भक्ति के आगे वह घर, स्त्री, पुत्र, धन धान्य सब कुछ तुच्छ समझते थे।

 एक बार भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए उन्होंने साल भर पत्नी सहित एकादशी का व्रत रखा। कार्तिक मास में व्रत जब समाप्त हुआ तो उन्होंने तीन दिनों तक उपवास किया। विष्णु भगवान का पूजन किया। ब्राह्मणों को साठ हजार गोओं का दान दिया। संत महात्माओं को दान दिया और उन्हें भोजन करवाकर संतुष्ट किया।

राजा अम्बरीष जब ब्राह्मणों को भोजन करवाने के पश्चात पारण करने लगे तो उसी समय दुर्वासा ऋषि अतिथि के रूप में वहां आ गए। राजा अम्बरीष ने दुर्वासा ऋषि का पूजन और स्वागत किया और उन्हें भोजन के लिए विनती की। दुर्वासा ऋषि कहने लगे कि मैं पहले यमुना नदी में स्नान कर भोजन करूंगा। दुर्वासा ऋषि स्नान करने चले गए।

उधर द्वादशी केवल कुछ मुहुर्त ही रह गई जिस मुहुर्त में पारण  करना आवश्यक था , नहीं तो राजा का व्रत निष्फल हो जाता। राजा अम्बरीष दुविधा में पड़ क्यों दुर्वासा ऋषि अभी वापिस नहीं आएं थे। अगर अतिथि ब्राह्मण को भोजन करवाये बिना पारण करते तो पाप के भागीदार बनते। लेकिन पारण किए बिना द्वादशी व्यतीत हो जाने पर पारण का महत्व समाप्त हो जाता।

ऋषियों ने कहा कि महाराज आप केवल जल से पारण कर ले इस से आपका व्रत भी व्यर्थ नहीं होगा और कोई दोष भी नहीं लगेगा क्योंकि जल को भोजन और अभोजन दोनों रूपों में माना जाता है। ऋषियों के परामर्श पर राजा अम्बरीष जल पान कर दुर्वासा ऋषि की प्रतीक्षा करने लगे।

यमुना से लौटने पर दुर्वासा ऋषि अपनी तप शक्ति से जान गए कि राजा अम्बरीष ने जल पी लिया। राजा अम्बरीष पर क्रोधित होते हुए दुर्वासा ऋषि कहने लगे कि तुमने धर्म का उल्लंघन किया है।

 राजन्! तू लक्ष्मी और धन वैभव में अंधा हो गया है ।तुमने मुझे भोजन का निमंत्रण दिया और घर आए अतिथि को भोजन कराएं बिना स्वयं भोजन कर लिया इस कुकर्म का फल तुझे जरूर भोगना पडे़गा।

 दुर्वासा ऋषि ने अपने जटा को उखाड़ कर उससे कालाग्नि के समान कृत्य को बनाया जो राजा की ओर दौड़ी । राजा अपने स्थान से तिल भर भी नहीं हटे ।

उसी क्षण भगवान विष्णु ने अपने भक्त की रक्षा के लिए अपना सुदर्शन चक्र भेजा ।जिसने कृत्या को उसी क्षण जला दिया और सुदर्शन चक्र फिर दुर्वासा ऋषि की ओर मुड़ गया।

दुर्वासा ऋषि जान बचाने के लिए भागे लेकिन जहां भी दुर्वासा ऋषि जाते चक्कर उनका पीछा करता रहा। ब्रह्मा जी की शरण में गए तो ब्रह्मा जी कहने लगे कि विष्णु जी के तेज से मैं आपको नहीं बचा सकता ।भगवान शिव के पास गए तो भगवान शिव कहने लगे कि विष्णु जी के चक्र से तुमे बचाना मेरे वश में नहीं है। तुम भगवान विष्णु के शरण में जाओ।

दुर्वासा ऋषि बैकुंठ धाम में गए । भगवान विष्णु के चरणो में वंदना कर कहने लगे हैं कि," साधुओं पर कृपा करने वाले प्रभु मुझ अपराधी की रक्षा करें। मैंने आपके प्रिय भक्तों को कष्ट पहुंचाया है इसके लिए मुझे क्षमा करें, भगवान मेरी रक्षा करें।

 भगवान विष्णु कहने लगे तुमने वास्तविकता जानते हुए भी मेरे भक्तों को कष्ट पहुंचाया है मेरे भक्तों मुझे बहुत प्रिय हैं ।तुम्हारी रक्षा का एक ही उपाय है तुम राजा अम्बरीष से क्षमा मांगो।

 यदि वह तुम्हें मे क्षमा कर दे तो समझो तुम्हारी रक्षा हो गई। वह बहुत दयालु है और धार्मिक राजा है ।वह तुम्हें जरूर क्षमा कर देगा ।  दुर्वासा ऋषि राजा अम्बरीष के पास पहुंचकर उनसे क्षमा मांगने लगे । आप के अपमान के कारण भगवान विष्णु का सुदर्शन चक्र मुझे जला रहा है। राजा अम्बरीष जी के पैरों में गिर गए। उन्हें दुःख में  देख कर राजा अम्बरीष को बहुत दुख हुआ। भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र को शांत करने के लिए राजा अम्बरीष ने स्तुति की। 

स्तुति  सुनकर सुदर्शन चक्र शांत हो गए और वापिस लौट गए। दुर्वासा ऋषि भी सुदर्शन चक्र के ताप से मुक्त होकर सुखी हो गए। दुर्वासा ऋषि ने राजा को  आशीर्वाद दिया और कहने लगे आप धर्मात्मा और दयालु है।

 आपने मेरी दुष्टता को भुलाकर मेरी रक्षा की। दुर्वासा ऋषि को सुदर्शन चक्र के भय से मुक्ति में एक वर्ष व्यतीत हो गया ।लेकिन राजा अम्बरीष दुर्वासा ऋषि की प्रतीक्षा में एक वर्ष तक केवल जल ही पी कर रहे। 

सुदर्शन चक्र से मुक्ति के पश्चात उन्होंने दुर्वासा ऋषि को भोजन करवा कर तृप्त किया और दुर्वासा ऋषि की आज्ञा के बाद उन्होंने फिर भोजन किया । उसके पश्चात दुर्वासा ऋषि अपने लोक चले गए राजा भक्ति के साथ राज्य करने लगे।

राजा अम्बरीष के इस प्रसंग को सुनने पढ़ने से भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त होती है।

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