SHRI JAGANNATHA PURI TEMPLE ODISHA

श्री जगन्नाथ पुरी मंदिर उड़ीसा 

 जगन्नाथ पुरी मंदिर भगवान विष्णु के आठवें अवतार श्री कृष्ण को समर्पित है। श्री कृष्ण का एक नाम जगन्नाथ भी है। 
जगन्नाथ भगवान के लिए कहा जाता है कि -

अनाथस्य जगन्नाथ नाथस्त्वं मे न संशयः।

यस्य नाथो जगन्नाथस्तस्य दुःखं कथं प्रभो॥


भाव - जिसका इस दुनिया में कोई नहीं है,भगवान जगन्नाथ उसके स्वामी (नाथ) है, इसमें कोई संशय नहीं है और जिसके नाथ जगन्नाथ जी है उसको जीवन में क्या दुःख हो सकता है।

जगन्नाथ मंदिर को धरती का बैकुंठ जाता है ।यह मंदिर भगवान विष्णु के आठवें अवतार श्री कृष्ण को समर्पित है। जगन्नाथ जी को श्री क्षेत्र, श्री पुरूषोत्तम क्षेत्र और नीलगिरी भी कहा जाता है। जगन्नाथ पुरी हिंदू धर्म के चार धाम बद्रीनाथ, द्वारिका पुरी, रामेश्वरम और जगन्नाथ में से एक है। 

ऐसा माना जाता है कि भगवान विष्णु ने सबसे पहले बद्रीनाथ धाम में स्नान किया, गुजरात के द्वारिका जी में कपड़े बदलें और जगन्नाथ में भोजन किया और तमिलनाडु के रामेश्वरम में विश्राम किया।

स्कंद पुराण और ब्रह्म पुराण के अनुसार भगवान विष्णु नीलमावध रूप में अवतरित हुए जो सबर जाति के देवता हैं।

जगन्नाथ मंदिर की मूर्तियां 

माना जाता है कि जब श्री कृष्ण ने देह त्याग किया तो अंतिम संस्कार के बाद भी उनका हृदय किसी जिंदा व्यक्ति की तरह धड़क रहा था। माना जाता है कि उनका वही हृदय जगन्नाथ जी की मूर्ति में स्थापित किया गया है।

जगन्नाथ मंदिर में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की काष्ठ की मूर्तियां विद्यमान है। लकड़ी की मूर्तियों वाला यह अनोखा मंदिर है। 

जगन्नाथ मंदिर की पौराणिक कथा 

एक  पौराणिक कथा के अनुसार द्वारिका में एक बार श्री कृष्ण सोते हुए राधे - राधे बोलने लगे तो रुक्मिणी ने अन्य रानियों को बताया। तब रूक्मिणी आदि सभी रानियां माता रोहिणी से कहने लगी कि वह श्री कृष्ण की बाल लीलाओं को उन्हें सुनाएं। माता रोहिणी ने टाला लेकिन रानियां बार बार मनोहार करने लगी।

 माता रोहिणी का कहना था कि श्री कृष्ण और बलराम उनकी कथा को ना सुने इसलिए सुभद्रा को द्वार पर पहरा देने के लिए बैठाया गया कि अगर दोनों भाई आते हुए दिखाई दे तो उन्हें द्वार पर ही रोक देना।

माता रोहिणी श्री कृष्ण की बाल लीला का बखान कर रही थी कि सुनते-सुनते सुभद्रा इतनी खो गई की उसे कुछ सुध ना रही। इतने में श्री कृष्ण और बलराम वहां आ गए लेकिन कोई इस बात को जान ना पाया। माता के द्वारा बाल लीला का वर्णन सुनकर तीनों इतने मंत्र मुग्ध गये कि प्रेम भाव से तीनों हाथ पैर पिघलने लगे आंँखे बड़ी हो गई।

इतने में नारद जी वहां आ गए और नारद जी ने तीनों के उस रूप के दर्शन कर लिये। नारद जी के आने का आभास होते ही तीनों अपने वास्तविक स्वरूप में आ गए। उधर अंदर माता रोहिणी को भी किसी के आने का अहसास हुआ तो उन्होंने ने भी कथा वहीं रोक दी।

नारद जी ने भगवान श्री कृष्ण से विनती की आप तीनों के मैंने जिस प्रेम भाव में लीन मूर्तिस्थ रूप में दर्शन किये है आप उसे सबके दर्शन हेतु धरती पर सुशोभित करें। श्री कृष्ण, बलराम और सुभद्रा का वही रूप जगन्नाथ मंदिर में विराजमान हैं।

राजा इंद्रद्युम्न द्वारा मंदिर का निर्माण 

श्री कृष्ण ने मालवा के राजा इंद्रद्युम्न जो कि भगवान विष्णु के बहुत बड़े भक्त थे। उनको स्वप्न में आदेश दिया कि नीलांचल पर्वत पर एक गुफा में मेरी एक मूर्ति है जिसे नील माधव कहते हैं तुम मंदिर बनवाकर मूर्ति स्थापित कर दो।

राजा ने ब्राह्मण विद्यापति सहित बहुत से लोगों को भगवान के विग्रह को ढूँढने के लिए भेजा। विद्यापति को जब पता चला कि राजा विश्ववसु के पास नीलमाधव की एक मूर्ति है जिसे उसने गुफा में छिपा कर रखा है तो उसने राजा से वह मूर्ति दिखाने के लिए कहा‌ तो उन्होंने मना कर दिया।

विद्यापति ने राजा विश्ववसु की पुत्री ललिता से विवाह कर लिया और ललिता से मूर्ति के दर्शन करने की इच्छा व्यक्त की। इस बार विश्ववसु ने विद्यापति की बात मान ली। वह विद्यापति को आँखों पर पट्टी बांध कर गुफा तक ले गया लेकिन विद्यापति भी बहुत चतुर था वह भी मार्ग की निशानी के लिए रास्ते में बीज गिराता गया जिससे उसे रास्ता खोजने में कोई  परेशानी नहीं हुई।

उसने मूर्ति चुरा कर राजा को दे दी। लेकिन मूर्ति चोरी होने के कारण विश्ववसु दुखी हो गया और अपने भक्त को दुखी देख कर भगवान उसके पास वापस लौट गए।

भगवान ने राजा इंद्रद्युम्न को कहा कि वह उसके पास वापस लौट आएंगे और स्वप्न में उसे एक मंदिर बनाने का आदेश दिया। मंदिर का निर्माण कार्य राजा ने शुरू किया और मंदिर बनकर तैयार हो गया। भगवान ने राजा को स्वप्न में दर्शन देकर कहा कि तुम को समुद्र में लकड़ी का एक लठ्ठा मिलेगा तुम उससे मूर्ति का निर्माण करना।

समुद्र से लकड़ी का लठ्ठा मिल गया लेकिन कोई भी कारीगर उससे मूर्ति ना बना पाया तो कहते हैं कि स्वयं विश्वकर्मा एक वृद्ध बढ़ई के रूप में राजा के सामने प्रस्तुत हुए।

उन्होंने राजा के सामने एक शर्त रखी कि मैं जिस स्थान पर मूर्ति बनाऊंगा उस स्थान पर मूर्ति निर्माण के दौरान कोई नहीं आएगा। लेकिन कहते हैं कि जब की दिन तक द्वार नहीं खुला तो राजा और उसकी पत्नी को चिंता होने लगी कि कोई बिना खाएं पिये इतने दिन तक काम कैसे कर सकता है?

राजा ने द्वार खोलने का निश्चय किया जैसे ही द्वार खोला गया वृद्ध बढ़ई वहां से जा चुका था लेकिन भगवान जगन्नाथ बलभद्र और सुभद्रा की काष्ठ की मूर्तियां वहां विद्यमान थी। अधूरी मूर्तियों को देखकर राजा दुखी हुए तो आकाशवाणी हुई कि दुखी मत हो हम इसी रूप में रहना चाहते हैं। भगवान ने उन स्वरूपों को ही स्थापित किया गया। आज भी भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी की मूर्तियां उसी रूप में है।

जगन्नाथ पुरी रथयात्रा 2023

जगन्नाथ पुरी रथयात्रा मंगलवार 20 जून से शुरू हो रही है। मान्यता है कि इस रथयात्रा में शामिल होने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। भगवान जगन्नाथ बलभद्र और भगिनी सुभद्रा के साथ रथ पर सवार होकर गुड़िचा मंदिर जाते हैं।


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