JAISE KHAYE ANN VAISE BANTA MAAN HINDI MOTIVATIONAL STORY
जैसे खाएं अन्न वैसा बनता मन एक प्रेरणादायक कहानी
आप ने बड़े बुजुर्गो से बहुत बार यह कहते सुना होगा कि,"जैसे खाएं अन्न वैसा बनता मन" अर्थात हम जैसा भोजन करते हैं वैसी ही हमारी वृत्ति हो जाती है। भोजन का हमारे मन पर अच्छा बुरा प्रभाव पड़ता है। इस बात को सिद्ध करने के लिए पढ़ें एक प्रेरणादायक कहानी-
एक बार एक सेठ ने एक साधु को अपने घर पर भोजन के लिए आमंत्रित किया। साधु महाराज ने उनके भोजन निमंत्रण स्वीकार कर लिया। सेठ ने साधु महाराज का उचित आदर सत्कार किया और उन्हें भोजन में खीर परोसी। साधू महाराज खीर खाकर तृप्त हो गए तो सेठ कहने लगा कि," महाराज बाहर बहुत गर्मी है। आप कुछ समय विश्राम करने के पश्चात शाम को चले जाना है। साधू ने सेठ की बात मान ली। सेठ ने उनके विश्राम के लिए उचित व्यवस्था करवा दी।
जिस कमरे में साधु महाराज विश्राम कर रहे थे। वहां पर सेठ के नोटों की गड्डियां पड़ी हुई थी। उनको एक कपड़े से ढका हुआ था। साधु महाराज जैसे ही विश्राम करके उठे तो उनके दृष्टि कपड़े से ढके हुए पैसे के ऊपर पड़ी। उनके मन में विचार आया कि इतने सारे रूपयों में से अगर कुछ रकम मैं ले लूं ,तो सेठ को क्या फर्क पड़ेगा? ऐसा सोचकर साधु ने कुछ रूपए अपने झोले में रख लिए। शाम के समय साधू महाराज ने सेठ को आशीर्वाद देकर उसके घर से विदा ली।
सेठ ने जब अगले दिन भुगतान करने के लिए पैसे गिने तो उसमें से रूपये कम होने का पता चला। पहले उसके मन में आया कि कहीं साधु महाराज तो रुपये लेकर चले गए। लेकिन फिर उसने अपने मन को समझाया कि साधुओं को रुपए पैसे का मोह नहीं होता, यह जरूर ही किसी नौकर का काम है।
उसने नौकरों से पूछताछ करनी शुरू की। लेकिन सभी नौकरों का कहना था कि," हमें इस विषय में कुछ पता नहीं है।" अब बस नौकरों की पिटाई होने ही वाली थी कि उसी साधु महाराज वापस आ गए।
उन्होंने अपने झोले में से रुपये निकालकर सेठ को वापस कर दिए। साधु महाराज कहने लगे कि," सेठ तुम्हारे नौकर निर्दोष है तुम्हारे रूपए मैं लेकर गया था।"
सेठ कहने लगा कि," मुझे लगता है कि जब मैंने पूछताछ शुरू की तो कोई नौकर घबराकर रूपए आपको दे गया होगा वरना संतों को कहां रूपये पैसे से मोह।"
साधु महाराज कहने लगे कि," सेठ तुम्हारे रूपए मैंने ही चुराएं थे। तुम मुझे एक बात सच बताओ कि ,"तुमने मुझे जो खीर खिलाई थी उसका अन्न कैसे प्राप्त किया था? क्योंकि जैसे ही मैंने तुम्हारे घर की बनी खीर खाई, मेरे मन में चोरी के भाव उत्पन्न हुए और मैं तुम्हारे घर से रुपये चुरा कर ले गया।
लेकिन आज सुबह जैसे ही मैं शौच से निवृत हुआ तो तेरे घर की खाई हुई थी का सफाया हुआ तो मेरी बुद्धि मेरा तिरस्कार करने लगी। मेरा मन धिक्कारने लगा कि," मैंने चोरी क्यों की?"
मैं तुरंत तुम्हारे पैसे वापस करने के लिए आ गया। सच बताओ तुमने खीर में प्रयोग होने वाले चावल कैसे प्राप्त किए थे?
सेठ हिचकते हुए कहने लगा कि," महाराज मैं स्टेशन मास्टर के साथ सांठगांठ करके वहां से सस्ते भाव में चोरी के चावल खरीदता हूं।"
कल मन में विचार आया कि इस पाप के बदले धर्म कर्म कर लूं। किसी साधु संत को भोजन करवा दूं मैंने उन्हीं चावलों से बनी आपको खिलाई है।
साधु महाराज कहने लगे कि," इसलिए तो कहते हैं कि जैसे खाएं अन्न वैसा बनता मन।" जैसे ही मैंने तुम्हारे चोरी से प्राप्त अन्न की खीर खाई तो मेरे अंदर भी चोरी करने के भाव जागृत हो गए। अब सेठ को अपनी करनी पर शर्मिन्दगी होने लगी।
हम जो अन्न खाते हैं उसका हमारे जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है । इसलिए घर के बड़े बुजुर्ग कहते हैं कि जिस धन से घर के लिए अन्न खरीदा जाए वह आपकी मेहनत का ही होना चाहिए।
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